महाराष्ट्र के स्कूल में क्रिकेट की वजह से हुई हत्या: क्या हम सच में सीख रहे हैं?
आपको याद होगा वो पुरानी कहावत – “खेल-खेल में क्या-क्या हो जाता है।” लेकिन अहिल्यानगर में जो हुआ, वो किसी बुरे सपने से कम नहीं। एक मामूली क्रिकेट मैच, दो बच्चों के बीच झगड़ा, और फिर… एक बच्चे की मौत। सच कहूँ तो ये सुनकर मेरे रोंगटे खड़े हो गए। और मुझे यकीन है आपके भी हुए होंगे।
क्या हुआ था असल में?
बात महाराष्ट्र के अहिल्यानगर की है। दो 14-15 साल के बच्चे – जिन्हें कल तक क्रिकेट खेलते देख कोई मुस्कुरा देता – आज एक दूसरे के सबसे बड़े दुश्मन बन गए। शुरुआत तो बस एक छोटी-सी बहस थी। वो भी क्रिकेट मैच में किसी नियम को लेकर। लेकिन बात बढ़ी, गर्म हुई, और फिर एक बच्चे के हाथ में चाकू आ गया।
अस्पताल ले जाया गया मगर… देर हो चुकी थी। स्कूल का वो गलियारा जहाँ बच्चों की हँसी गूँजती थी, आज एक सन्नाटे में डूब गया।
पुलिस क्या कर रही है?
जानकारी के मुताबिक, आरोपी बच्चे को गिरफ्तार कर लिया गया है। पर सवाल ये है कि क्या सिर्फ एक बच्चे को जेल में डाल देने से समस्या हल हो जाएगी? वो भी तो बच्चा ही है – जुवेनाइल जस्टिस एक्ट के तहत उसके साथ अलग तरह से पेश आया जाएगा।
स्कूल वालों ने तो मुँह छुपा लिया है – “हमने काउंसलिंग शुरू कर दी है।” मगर ये तो तब होना चाहिए था जब बच्चों के बीच तनाव बढ़ रहा था, न कि तब जब एक बच्चा मर चुका हो।
ये सिर्फ क्रिकेट की बात नहीं
मेरे एक दोस्त – जो स्कूल टीचर है – ने बताया कि आजकल बच्चों में गुस्सा बहुत जल्दी आ जाता है। एक बार तो उसने देखा कि दो बच्चे सिर्फ इसलिए लड़ने लगे क्योंकि एक ने दूसरे की पेंसिल छू ली थी। सोचिए!
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि आजकल के बच्चे दबाव में जी रहे हैं। परीक्षा का दबाव, पेरेंट्स की उम्मीदों का दबाव, सोशल मीडिया पर दिखावे का दबाव… और जब ये सब भर जाता है तो एक छोटी सी चिंगारी विस्फोट करा देती है।
ये पहली बार नहीं हुआ
पिछले साल पुणे में भी ऐसा ही कुछ हुआ था। नागपुर में तो एक बच्चे ने सिर्फ इसलिए दूसरे को चाकू मार दिया क्योंकि वो उसका मोबाइल गेम जीत गया था। अब सवाल ये है कि हम कब सीखेंगे?
कुछ लोग कहते हैं सोशल मीडिया की वजह से ऐसा हो रहा है। कुछ का कहना है कि घरों में बच्चों को समय नहीं मिलता। मेरी नज़र में – दोनों ही बातें सही हैं। पर समाधान क्या है?
हम क्या कर सकते हैं?
स्कूलों को चाहिए कि:
- हफ्ते में एक बार ‘नो एंगर डे’ मनाएँ – जहाँ बच्चे अपना गुस्सा शांत तरीके से निकाल सकें
- शिक्षकों को ट्रेनिंग दी जाए कि वो बच्चों के बीच के तनाव को पहचान सकें
माता-पिता को चाहिए कि:
- रोज़ कम से कम 15 मिनट बच्चों से बात करें – बिना फोन, बिना टीवी, बस उनकी बात सुनें
- बच्चों को जीत-हार दोनों को स्वीकार करना सिखाएँ
आखिरी बात
ये घटना सिर्फ एक खबर नहीं है। ये हमारे समाज का आईना है। जब तक हम – आप, मैं, स्कूल, माता-पिता – मिलकर कुछ नहीं करेंगे, तब तक ऐसी खबरें आती रहेंगी। और एक दिन… शायद हमारा अपना बच्चा भी इसका शिकार बन जाए। डरावना है न? पर सच यही है।
तो क्या हम आज से ही शुरुआत करेंगे? या फिर अगली खबर का इंतज़ार करेंगे?
Source: NDTV Khabar – Latest